तुम्हारी कब्र पर मैं, फ़ातेहा पढ़ने नहीं आया....
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकती
तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर, जिसने उड़ाई थी वो झूठा था...
वो तुम कब थी...कोई सूखा हुआ पत्ता ..हवा में गिर के टूटा था.
मेरी आंखे तुम्हारे मंजरो में क़ैद है अब तक..
मैं जो भी देखता हूं...सोचता हूं
वो वही है..जो तुम्हारी नेकनामी,और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला..
अब भी तुम्हारे हांथ मेरी उंगलियों मे सांस लेते हैं.
में जब भी लिखने के लिए जब भी कागज़ कलम उठाता हूं
तुम्हें बैठा हुआ अपनी कुर्सी में मैं पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज़ में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है
मेरी बीमारियों में तुम,मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र प जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है
तुम्हारी कब्र पर मैं दफ़न, तुम मुझमें ज़िंदा हो
कभी फुरसत मिले तो फ़ातहा पढ़ने चले आना.......
निदा फ़ाजली..
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